कहीं किसी क आंसूं बहते रहे...
उन्हें न सम्भाल पाए,
अपनी नाकामयाबी पर रोना आया..
कहीं और चल दी हम...
छोड़ आए कुछ बीच राह में,
अपनी खुदगर्जी पर रोना आया..
सारा जहाँ से प्यार बटोरते रहे...
ना बांटा न बटने दिया...
अपनी मतलबी चाहतों पर रोना आया...
इश्क किया शायद हमेशा ख़ुद से ज़्यादा...
किसी और की मोहब्बत को समझ न पाने की,
अपनी इस न-समझी पर रोना आया...
न दिखी तेरी लाचारी, न दिखी तेरी तकलीफ...
न दिखी मुझे तुझमे मेरी पर्ची,
अँधेरी नगरी में बस्ती अपनी हस्ती पर रोना आया...
“कभी ख़ुद पे, कभी हालत पर रोना आया...”
saara jahan se pyar batorte rahe...
ReplyDeletenaa baanta na batne dia...
:)
nice poem!
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